गत दिनों मंचीय कवि और कविता पर
चिन्तन कर रहा था
तो ये पंक्तियाँ स्वतः और बरबस ही बन गईं
बहुत हो चुकी नारी की छीछालेदार इन मंचों पर
बहुत हो चुका घरवाली का कारोबार इन मंचों पर
बहुत हो चुके सड़े चुटकुले बार-बार इन मंचों पर
बहुत हो चुके टुच्चे टोटके लगातार इन मंचों पर
बहुत हो चुकी गीत ग़ज़ल छंदों की हार इन मंचों पर
बहुत हो चुका चीर काव्य का तार तार इन मंचों पर
बहुत हो चुका कविताई से व्यभिचार इन मंचों पर
बहुत हो चुकी सरस्वती माँ शर्मसार इन मंचों पर
अब मंचों पर
राम के मर्यादित परिवेश की बात करो
महावीर की
अहिंसा के शीतल सन्देश की बात करो
जन जन में
जो उबल रहा है उस आवेश की बात करो
कवियों ! अब
तुम कविताओं में सिर्फ़ देश की बात करो

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