Wednesday, June 16, 2010

बहुत हो चुकी गीत ग़ज़ल छंदों की हार इन मंचों पर




गत दिनों मंचीय कवि और कविता पर

चिन्तन कर रहा था

तो ये पंक्तियाँ स्वतः और बरबस ही बन गईं




बहुत हो चुकी नारी की छीछालेदार इन मंचों पर

बहुत हो चुका घरवाली का कारोबार इन मंचों पर


बहुत हो चुके सड़े चुटकुले बार-बार
इन मंचों पर

बहुत हो चुके टुच्चे टोटके लगातार
इन मंचों पर


बहुत हो चुकी गीत ग़ज़ल छंदों की हार इन मंचों पर

बहुत हो चुका चीर काव्य का तार तार इन मंचों पर


बहुत हो चुका कविताई से व्यभिचार इन मंचों पर

बहुत हो चुकी सरस्वती माँ शर्मसार इन मंचों पर


अब मंचों पर

राम के मर्यादित परिवेश की बात करो


महावीर की

अहिंसा के शीतल सन्देश की बात करो


जन जन में

जो उबल रहा है उस आवेश की बात करो


कवियों ! अब

तुम कविताओं में सिर्फ़ देश की बात करो


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